सड़के

सड़के हैं, बनी हुई हैं और नयी बनाई जा रही हैं। टूटती हैं तो मरम्मत होती हैं और वापस बरसात में टूट जाती हैं। सडको को फर्क नहीं पड़ता की कौन उन पर चलता हैं, वो सबके लिए एक जैसी रहती हैं काली सी, डामर वाली या कुछेक खड्डो वाली। लेकिन उन पर चलने वालो को फर्क पड़ता हैं। जब उनकी अपनी सड़क हैं तो वे दुसरो की सड़क पर क्यों चले?उन्हें अच्छा लगता हैं जब कोई दूसरा उनकी सड़क पर चलता हैं लेकिन वे दूसरो की सड़क पर नहीं चलेंगे। डर भी सताता हैं कि कोई अतिक्रमण न करले। उन्हें भय सताता हैं कि कहीं दूसरा अपनी सड़क उनकी सड़क के ऊपर से न गुजार दे...कोई चौराहा न बन जाए....फ्लाईओवर कतई बर्दास्त नहीं किये जा सकते हैं। उन्हें रक्षा करनी हैं अपनी वाली सड़क की...भले ही इसके लिए अपनी सड़क खोद्नी ही क्यों न पड़े? हमारे बाप दादाओ ने जो बनाई हैं.....ये सड़क इतने प्यार से हमारे लिए भला हम कैसे दुसरो को ले जाने दे और उनकी सड़क पर चलने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता...आखिर हमारी वाली में क्या बुराई हैं? हम भूल जाते हैं कि जब सड़के बनाई जा रही थी तो हमारे बाप दादा और उनके बाप दादा दोपहर में एक साथ बीच वाले पेड़ की छाँव में बैठ कर खाना खाते थे। हम सडको पर पड़े हैं, लड़ रहे हैं झगड़ रहे हैं लेकिन हम कही जा नहीं रहे हैं। हम भूल गए हैं कि ये सड़के हमें कहीं ले जाना चाहती हैं और सब एक ही जगह जाती हैं। हम धर्म के पीछे पड़े हुए हैं पर भूल गए हैं कि धर्म केवल एक रास्ता हैं, मंजिल नहीं.... #blog