‘पिता का चश्मा'

‘पिता का चश्मा’

लेखन- सुमित मेनारिया
सम्पादन- अतुल शुक्ला

अस्तांचलगामी सूर्य अपनी नारंगी रोशनी सहेजते हुए क्षितिज की ओट लेने लगा था. दूसरी तरफ  चंद्रमा किसी नन्हे शिशु की भाँति बादलो के पीछे से मुख निकाल रहा था. जब तक आसमान में  सूरज रहता हैं चाँद नही दीखता उसका अस्तित्व सूर्य के विलीन होने के पश्चात ही उभरता हैं. पंछी चहचहाते हुए अपने नीड़ को लौटने लगे थे, दोपहर तक हुई बारिश ने उनके लिए दाना मुहाल कर दिया था लेकिन उन्हें जो मिला वो उसी में संतुष्ट थे. बारिश की वजह से पार्क में भी लोग आज कम ही थे. एक बेंच पर एक बूढी काया झुकी सी बैठी थी।
काया एक अंतरद्वंद् में उलझी हुई थी. इतने बरसों में अबतक कभी उसे इस पीड़ा से नही गुजरना पड़ा जिससे आज उसे जूझना पड़ रहा था. यह शायद उसकी पत्नी ही थी जिसने सब अपनी हथेलियों में थाम रखा था, उसके घर को घर बनाये रखा था. लेकिन अब वो भी नही रही. तीन महीने पहले ही वो उसे छोड़ कर हमेशा-हमेशा के लिए चली गयी थी. उसके बिना इतना जल्दी ही वो टूट जायेगा उसने कभी सोचा भी नहीं था. बेटे-बहूँ जिसे वो अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा मानता था आज उसीकी जान के ही दुश्मन बन बैठे थे. 
उसे महसूस हो रहा था कि शायद गलती उसकी भी थी. उसे इस तरह से समधी जी को अपने टूटे चश्मे के बारे में नही बताना चाहिए था. बातो-बातो में उसने समधी जी को बता दिया था कि महीने भर से चश्मा टुटा हुआ हैं लेकिन किसी के पास वक्त ही नही हैं कि नया दिला दे या कम से कम कांच ही बदलवा दे. उसका इरादा बेटे-बहू को नीचा दिखने का नही था. लेकिन अखबार न पढ़ पाने का गम गलत तरीके से बाहर आ गया था. पत्नी के गुजरने के बाद एक अखबार ही तो था जो उसका साथी बना हुआ था.
लेकिन उसका ये जबान का फिसलना उसे काफी महंगा पड़ा. रौबदार सास के चलते जो बहू एक शब्द तक न कह पाती थी, उसने अपने दिल का पूरा गुबार निकल दिया था. कैसे इतने वर्षों तक उसने सास-ससुर को झेला था, कौन कौन से अरमान थे जो उनके कारण पूरे नही हो पाए थे, पति की कमाई का कितना हिस्सा उनके ऊपर खर्च होता था... एक-एक चीज़ उसने सविस्तार बता दी थी.
‘पिताजी आप तो जानते ही हैं आजकल कितनी परेशानियां चल रही हैं? गुडिया का कॉलेज में एडमिशन करवाना हैं, उसी की भागदोड में लगा हुआ हूँ. अगर आप को कुछ चाहिए था तो हमें कहना था इसके पापा को कहने की कहा जरुरत थी?’ बेटे ने अंत में अपना पक्ष रखा।
लेकिन वो जानता था. जानता था की ये दिन भी आएगा. सालो तक सुकून से बहती नदी जब सागर में मिलने वाली होती हैं तब उसके आस-पास गाद जम ही जाती हैं. वो इस गाद में धस कर दम तोड़ने वाला नही थी. जवानी में जब नई-नई नौकरी लगी थी तो एक मित्र मिलने आया था. कोई स्कीम बताई थी कहा था कुछेक रुपये हर महीने कटेंगे जो बुढ़ापे में मिलेंगे.
'लेकिन भाई पेंशन तो वैसे भी मिलेगी' उसने हँसते हुए कहा.
'भाई पेंशन परिवार के लिए होती हैं. ये तेरे खुद के लिए होंगे.'
अच्छा मित्र था वो भी नया-नया ही नॉकरी लगा था, अपना टारगेट पूरा करना था. लेकिन मित्रता की खातिर उसने भी तब इन्वेस्ट कर दिया. आज वही पैसा उसके बुढ़ापे की लाठी बनने वाला था. कोई छह-सात लाख रुपये बन रहे थे. उसने तय कर लिया कि यहाँ सब छोड़ कर अपने गाँव चला जायेगा. अपनी बाकी की जिंदगी वही सुकून से बसर करेगा. बिना किसी पर बोझ बने.

उसने सारी तैयारी कर ली. सप्ताह भर बाद का टिकट भी बुक करवा लिया.  बेटे-बहु को भी बता दिया. बेटे ने पहले तो रोकने की कोशिश की लेकिन फिर पिता के दृढ़निश्चय को देखकर और रुपयों की बात जानकार हामी भर दी.
कल शाम की ट्रेन थी. वो अपना सामान जमा रहा था. शाम को बेटे-बहु किसी ने भी ज्यादा बात नहीं की थी. वो शायद किसी उधेड़बुन में थे. अपनी पत्नी की तस्वीर सूटकेस में रखते हुए उसकी आँखों से दो आंसू बह आये. तभी दरवाजे पर बेटे ने दस्तक दी.
“मैं शाम को निकालूँगा, तुम सबका ख्याल रखना.” उसने बेटे की तरफ देखे बिना ही कहा.
“वो पिताजी...” बेटा कहते कहते रुक गया.
“क्या हुआ बोलो?” उसने बेटे की तरफ देख कर कहा.
“पिताजी हमें माफ़ कर दीजिये, आप कही मत जाइए. आगे से आपको कोई तकलीफ नहीं होगी.” उसे महसूस हुआ की बेटे की बात अब भी अधूरी थी.
“साफ़ साफ़ कहो क्या हुआ?”
“वो गुडिया के लिए कोलेज मिल गया हैं, बड़ी मुश्किल से मिला हैं, काफी अच्छा कोलेज हैं.”
“हम्म, तो? ये तो अच्छी बात हैं.”
“लेकिन  कोलेज वाले डोनेशन मांग रहे हैं. दस लाख रुपये! दो-तीन लाख तो मैं कर दूंगा लेकिन इतने न हो पाएंगे. अगर आप कुछ....”
वो मन ही मन हंस पड़ा. वो जोर जोर से हंस रहा था. अपनी हालत पर, अपने बेटे की हालत पर, इस दुनिया की हालत पर ,जो कि अंत की दहलीज पर खड़े बूढ़े को कफ़न की खातिर भी मोहताज करके छोड़ने वाली थी.
“बेटा! मैंने कहा था न, एक पिता होना कैसा होता हैं  ये तुम तब ताम नही समझ पाओगे जब तक तुम एक पिता नही बन जाते.”
“पिताजी आपको आगे से कोई तकलीफ नहीं होगी मैं वादा करता हूँ.”
“कोई बात नही." सुबह उठकर बैंक पहुंचा और पैसे कैश कराये.. लाकर बेटे को थमाया तो बेटे की आँखों में ताब नही बची कि वो बूढ़े से नजर मिला पाता ...शाम को जब बेटा एडमिशन करवा कर लौटा तो उसके चेहरे पर ख़ुशी साफ़ झलक रही थी. मन में पश्चाताप भी था. गुडिया को कह दिया घर जाते ही बाबूजी के चरण स्पर्श करना और ‘थैंक्स’ कहना.
लेकिन घर पहुंचा तो सब सुनसान था. पिताजी  जा चुके थे. शाम की ट्रेन से ही. मेज पर रखा टूटा हुआ चश्मा अब भी उसे मुंह चिढ़ा रहा था ....पिता को किसी की भी जरुरत नही थी. न चश्मे की , न ही धन्यवाद की ।