हालात-ए-दफ्तर-ए-छोटा मुंह और बड़ी बात-1

हालात-ए-दफ्तर-ए-छोटा मुंह और बड़ी बात

दफ्तर का पंखा आने वाली गर्मी की आहट देता हुआ एक नंबर की गति पर अपनी भूमिका मात्र अदा कर रहा हैं।  मेज पर तीन चार अलग-अलग रंग की साड़ियां बिखरी पड़ी है जिन्हें हिमांशु जी समेट रहे हैं। कोने में चंद्रशेखर श्रीवास्तव जी ( जिन्हें  इतना बड़ा नाम न लिख पाने की हमारी असमर्थता की वजह से आगे चन्द्र जी से संबोधित किया जाएगा) अपनी गरलफ्रेंड के साथ व्हाट्सएप्प के नवनिर्मित वौइस् कालिंग फीचर का परिक्षण कर रहे हैं।
श्रीमान अतुल शुक्ला जी खिड़की के पास ही कुर्सी लगा कर बाहर अपने विरोधियो को चुन चुन कर गाली (सॉरी! गोली) मार रहे हैं। उनके विद्रोही बाहर त्राहिमाम! त्राहिमाम! चिल्लाते हुए भाग रहे है।
पास ही दीवार पर श्री रजनीश जी की का बड़ा पोस्टर लगा हैं जिसके नीचे पीले बैकग्राउंड के ऊपर काले अक्षरों में "तलाश हैं! " लिखा हुआ हैं। ऊपर लगी दिवार घडी दस बजकर दस मिनट का शुभ समय बतला रही हैं।
तभी दरवाजा खुलता हैं और एक  दिव्य रौशनी दिखती है जिसमे से  बैग टाँगे सुमित जी अवतरित होते हैं। वे सर्वप्रथम  दरवाजे के पीछे लगी परम आदरणीय कटाक्ष गुरु श्री आशु मुनि की जंग लगी लोहे की मूर्ति को सादर प्रणाम करते हैं, जिस पर चढ़ी प्लास्टिक की माला को मक्खियों   ने सार्वजनिक शोचालय बना दिया हैं।
इसके पश्चात उन्होंने  समस्त लार को अपने मुंह में एकत्रित करते हुए एक जोर की खेकार मारी जिसे सुनकर साडी को आधा पहन चुके हिमांशु ने एक मधुर मुस्कान बिखेरी, फ़ोन में तल्लीन चन्द्र जी ने अनसुना कर दिया और शुक्ला जी ने एक नज़र सुमित जी को देखा और दमदार आवाज़ में गरजे "आ गए आप?"
आवाज इतनी दमदार थी कि सुमित जी का मूत्र मूत्रद्वार तक पहुँच कर वापस आ गया लेकिन  शुक्ला जी वापस विरोधियो को मारने में लीन हो गए।
'जी' सुमित जी ने धीरे से कहा। "पेज के क्या हाल चाल हैं?"
"मैंने डाली थी एक पोस्ट।" साडी के दोनों पल्लू मिलाते हुए हिमांशु जी बोले। "आप कहाँ गए थे?" चन्द्र जी  ने प्रश्न भरी नज़र से सुमित जी को देखकर बोला।
"वो हम एग्जाम की तयारी कर रहे थे। रजनीश जी का कुछ पता चला?" सुमित जी शुक्ला जी की और देख कर बोले।
  "उ कौनसी हमारी लुगाई हैं जो हम ढूंढते फिरेंगे।"
"हमने देखा था उन्हें आखिरी बार!" हिमांशु साडी चेंज करते हुए बोले। "शायद वे 'सत्य की खोज' करने गए है। हिमालय की ओर कमंडल लेकर जाते हमने देखा था।"
"अबे वो रोज सुबह लौटा लेकर पहाड़ी पर हगने जाते हैं।" शुक्ला जी बोले।
"दो महीने हो गए हैं हमें ज्वाइन किये हुए हमारी सैलरी का कुछ कीजिये।" फोन को दूर करते हुए चन्द्र जी उवाचे।
"हां, हमें भी पैसो की आवश्यकता हैं।" हिमांशु जी मासूमियत के साथ बोले।
शुक्ला जी ने उपहास भरी नज़र से सुमित जी की और देखा।
"हमारी कोचिंग की वक़्त हो गया हैं।" सुमित जी ने दीवार घडी की और देखते हुए कहा और उलटे पाँव चरण प्रस्थान कर गए।