देवपुत्र

शीत अपने चरम पर थी। पशु-पक्षी ठिठुरते हुए अपने बसेरो में जा दुबके थे। सूरज शनैः-शनैः अन्धकार की चादर ओढ़ कर पहाड़ की ओट में छुप चुका था। नीम के पेड़ के नीचे जलते अलाव के निकट खाट पर बैठा एक प्रौढ़ कम्बल ओढ़े हुक्के पी रहा था। तीखी मूंछें, सुदृढ़ भृकुटी, सिर पर लाल पगड़ी और कम्बल से झाँक रहा गले का चाँदी मिश्रित पीतल का गलाबन्द व्यक्ति के रौब का गुणगान कर रहे थे। समीप ही मिटटी के बने कच्चे मकान की खिड़की से मक्के की रोटी की सौंधी खुशबु आ रही थी। तभी मकान के पास की कच्ची सड़क पर एक छाया प्रकट होकर स्पष्ट आकृति में बदल गई।
- "देवपुत्र आ गया...देवपुत्र आ गया..." उस व्यक्ति ने आते ही बड़े व्यग्रता से कहा। यह सुनते ही हुक्का पीते व्यक्ति की आँखे फैल गयी, मानो हुक्के का धुंआ उसके फेफड़ों में अटक गया हो।
- "ऐ रे नक्या! क्या बक रहा है?" उसने घूरते हुए पूछा।
- "हाँ लाला, देवपुत्र आ गया है।" आने वाले व्यक्ति ने उसी व्यग्रता से जवाब दिया।
- "देवपुत्र...कौन देवपुत्र?" लाला जैसे जवाब जानते भी न सुनना चाहता था।
- "भीमा... लाला... भीमा ही देवपुत्र है। उसने परचम लहरा दिया।"
"भीमा" - सुनते ही लाला सिहर गया। जैसे हुक्के का धुँआ उसके फेफड़ो में ही अटक गया हो। उसने मकान की तरफ देखा। रोटी बनाने वाली स्त्री खिड़की से झांक रही थी।
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'रुसना' हिमालय की पहाड़ियों में रावी नदी के किनारे बसा एक छोटा-सा खूबसूरत गाँव था। पौराणिक गाथाओं में रावी को परुषनी और इरावती कहा गया है। इस गाँव से कुछ दूर रावत नाम का एक ऊँचा पर्वत था। गाँव वाले इस पर्वत को ही रावी नदी का उद्गगम मानते थे। परुषनी से गाँव का नाम रुसना पड़ा और इरावती से रावत पर्वत। पर्वत पर रावी के उद्गम-स्थल के नीचे एक गुफा थी। गाँव वाले इस गुफा को देवताओं का घर कहते थे। कहा जाता था कि पहले जब नदी नहीं थी तब इस गुफा से लेकर धरती तक सीढ़ियां थीं, जिससे होकर देवता नीचे गाँव में आते थे। लेकिन एक बार कुछ गाँववालों ने साजिश कर देवताओं के पुत्र को मार दिया। देवता इससे कुपित हो उठे। उन्होंने सीढ़ियों को ध्वस्त कर दिया और पुत्र की मृत्यु का लंबे समय तक शोक मनाया। उनके आंसुओं से नदी निकल पड़ी। गाँव वालों ने देवताओ को मनाने के लिए सात दिन तक उस पर्वत के नीचे हवन किया। देवताओं ने भविष्यवाणी की, कि जो व्यक्ति उस गुफा तक पहुंचेगा वही नया देवपुत्र माना जाएगा। तब से हर साल उस जगह मेला लगता है और सात दिनों तक हवन किये जाते हैं।
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लाला नेकचन्द ने कुँए के निकट दो कमरे बनवाए थे। किवाड़-खिड़की बनाने का काम होरा बढ़ई को दिया था। भीमा होरा का बेटा था जो अपने बाप के काम में हाथ बटाता था। काम का समय व्यर्थ ना जाए इसके लिए लाला ने खाने की व्यवस्था खुद ही की थी। हर दोपहर लाला की बेटी सोना खाना लेकर आ जाती थी। सोना के रूप को कुदरत ने बहुत बारीकी से संवारा था। भीमा को पहली नज़र में ही वह भा गई। सोना भी सुन्दर, हट्टे-कट्टे, बाईस साल के युवा भीमा से आकर्षित थी। लेकिन जात का अंतर मन के प्रेम को बांधे हुए था। भीमा जानता था क़ि चाहे कुछ भी हो जाए लाला सोना की शादी उससे करने को राजी नहीं होगा। रोज वह सोना को देखता और मन मसोस कर रह जाता। पूरे दिन काम करते हुए सोना की मोहनी छवि उसकी आँखों के सामने घूमती रहती। मगर कुछ कहने की हिम्मत न कर पाता।
एक दिन होरा काम पर नहीं आया था। मौका अच्छा था। भीम ने सोच लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए आज सोना को अपने मन की बात कह कर रहेगा। हर दिन की तरह जब सोना खाना देकर जाने लगी तो भीमा ने उसे रोका, "रुको सोना।" धड़कते दिल पर किसी तरह काबू पाते हुए उसने अपना वाक्य पूरा किया "मैं तुझसे कुछ कहना चाहता हूँ।" सोना उसे ताकने लगी।
- "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो।" भीमा ने साँस रोककर कहा।
- "सोना तो सबको अच्छी लगती है।" उसने हंस कर जवाब दिया।
- "मजाक नही कर रहा, मैं तुमसे प्रेम करता हूँ।" एक सांस में कह गया वह।
- "पागल तो नहीं हो गये? तुम्हारा मेरा कौन सा मेल?"
- "तुम भी तो मुझे पसंद करती हो!" भीमा ने सोना का दिल पढ़ने की कोशिश की।
- "तुम कौन से देवपुत्र हो जो मैं तुम्हें पसंद करुँगी? ये सोना के ख्वाब देखना छोड़ दे भीमा। मेरा कुँवर तो कोई शहजादा होगा, हाँ!" कहकर सोना वहाँ से चली गई।
भीमा बहुत ही आहत हुआ। उसे सोना के इतने पत्थर दिल होने की उम्मीद न थी। मगर वह देवपुत्र वाली बात उसके दिमाग में घर कर गई थी। वो तीन-चार दिनों तक एक भाला गढ़ता रहा और फिर निकल पड़ा पर्वत की तरफ...
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रात्रि का दूसरा पहर था। गाँव के पंडित के घर गुप्त सभा चल रही थी। लाला नेकचन्द और उसके दो विश्वासपात्र बहुत देर से पंडित को कुछ समझाने की कोशिश कर रहे थे।
- "चाहे कुछ भी हो जाए पंडित, मैं अपनी बेटी उस भीमा को हरगिज़ न दूंगा।" लाला क्रोध से बोला।
- "लेकिन लाला, वो देवपुत्र है। तुम उसे मना भी तो नही कर सकते। देवताओं का कोप बरसेगा।" पंडित ने मामले की गंभीरता समझाते हुए कहा।
- "वह लड़का झूठा है। कोई देवपुत्र नहीं है वह। उसने सिर्फ भाला फेंका हैं गुफा के मुहाने पर। वह पहाड़ पर चढ़ा ही नहीं तो देवपुत्र कैसे हो गया?" नेकचंद ने सिरे से नकार दिया।
- "तुम्हें कैसे मालूम?" पंडित ने अचरज से पूछा।
- "उसने खुद मेरी बेटी को बताया था।" लाला एक पल को रुका। "…और वैसे भी यह देवपुत्र वाली कहानी बकवास है, जिसे तुम्हारे पूर्वजों ने गढ़ा ताकि हर साल मेले के हवन में तुम्हें दान-दक्षिणा मिलती रहे और हमने मान भी लिया ताकि तुम्हें दान देने के चक्कर में हमारी साहूकारी भी चलती रहे।"
- "लेकिन यह कहानी सच भी तो हो सकती है।" पंडित ने हारी हुई बाजी पर एक और दांव लगाया।
- "अगर मेरी सोना की जगह तुम्हारी विद्या होती तब भी क्या तुम यही कहते पंडित? तुम्हारे सांच-झूठ के फेर में मैं अपनी सोना को कुर्बान न करूँगा।"
- "तो तुम क्या चाहते हो?" पंडित ने हार मानते हुए कहा।
- "कल मैं भीमा के देवपुत्र होने के दावे को लेकर गाँव की पंचायत बुलाऊंगा, जिसमें तुम भीमा से देवताओं को लेकर कुछ सवाल पूछोगे। जब वो देवताओं से मिला ही नहीं तो जवाब कैसे देगा? गाँव वालो को मानना पड़ेगा की वो झूठा है।" लाला ने स्पष्ट किया।
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अगले दिन गाँव के मुख्य चौपाल पर पंचायत जमी। ऊपर गाँव के सभी पञ्च और सरपंच बैठे। नीचे एक तरफ भीमा और उसका बाप खड़े तो दूसरी तरफ लाला, पंडित और बाकी सब खड़े हुए। स्त्रियों की कतार में सोना को भी बैठाया गया।
लाला स्वयं आगे आकर बोला, "पंचो! इस भीमा का कहना है कि यह देवपुत्र है। उस पर्बत पर चढ़ा है। और देवताओं से मिला है… लेकिन मैं यह नही मानता।"
सब कानाफूसी करने लगे।
- "लेकिन इसने परचम तो लहराया है।" एक पंच बोला।
- "इसने सिर्फ भाला फेंका था।" लाला ने पंच को घूरते हुए कहा।
- "क्या तुम देवताओ से मिले थे भीमा?" दूसरे पंच ने भीमा से पूछा।
- "हाँ… मिला था।" भीमा ने सोना की तरफ देखते हुए कहा। सोना गर्व से अपने पिता की और देख रही थी।
- "अभी दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।" पंडित किसी रटे हुए तोते की तरह बोला। "मैं भीमा से देवताओं से जुड़े कुछ सवाल पूछूँगा, अगर इसने उनके सही जवाब दे दिए तो मतलब कि ये सच में देवताओ से मिला है।" सब पञ्च इस बात से सहमत हो गए।
- "वहां कितने देवता थे?" पंडित ने पूछा।
- "चार थे। दो स्त्री - दो पुरुष।" भीमा ने दृढ़तापूर्वक कहा।
- "लेकिन शास्त्रों में तो दो के बारे में ही लिखा है।"
- "तो दो उनके बच्चे हो गये होंगे। ऊपर और करते भी क्या होंगे?" भीमा ने हँसते हुए कहा।
- "उन्होंने क्या पहन रखा था?" पंडित ने आगे पूछा।
- "वो सब आदमजात नंगे थे। इसीलिए तो वो नीचे नही आते। उन्हें लाज आती है।"
- "देवता लाल रंग के कपड़े पहनते हैं मूर्ख!" पंडित ने गुस्से से कहा।
- "मुझे तो नंगे ही मिले थे। शायद उनके कपड़े फट गए होंगे।" भीमा ने उपेक्षापूर्वक कहा।
- "उन्होंने तुमसे क्या कहा?"
- "पंडित झूठा होता है और साहूकार चोर! उनकी बातों पर कभी विश्वास मत करना।"
- "यह लड़का कोरी बकवास कर रहा है। यह देवताओं के बारे में कुछ नही जानता। उल्टे उनका मजाक उड़ा रहा है। देवता कभी ऐसे छोटे इंसान को मिल ही नही सकते।" पंडित ने अंतिम दलील देते हुए कहा।
पंचों ने साहूकार के पक्ष में फैसला दिया और देवपुत्र होने का झूठा अभिनय करने के अपराध में भीमा को मरने के लिए जंगल में छोड़ दिया गया।
इसके एक माह बाद भारी बरसात हुई। नदी में उफान आ गया और पूरा गाँव उस बाढ़ में डूब गया। लोग कहते हैं कि वो बाढ़ देवताओ का कहर थी। आखिर गांववालों ने दो बार उनके बेटे को मारा था। रुसना गाँव का नामो-निशान मिट गया। बचा तो सिर्फ रावत पर्वत पर लहराता एक परचम और उसके पास ही एक चट्टान पर दो आखरो का लिखा हुआ एक नाम... "सोना"… और हाँ, सोना-भीमा भी जीवित रहे… लोककथाओं में… जनश्रुतियों में… अब भी उनकी कहानियाँ रावी की तलहटी में बड़े चाव से सुनी-सुनाई जाती है।