टोपी बेचने वाला बंदर

एक बार एक बन्दर था। वो गाँव-गाँव घूम कर टोपीयाँ बेचता था। एक बार किसी गाँव में टोपी बेचने जा रहा था। गर्मी की दोपहर थी, थकान आ गयी। एक घनी छाँव वाला पेड़ दिखा तो सोचा कुछ देर सुस्ता लूँ। बन्दर टोपियों की गठरी पास में रखकर सो गया। जब नींद खुली तो देखा कि गठरी गायब हैं। बन्दर की हालात खस्ता हो गयी, अब क्या करे? ढूंढते-ढूंढते कुछ आगे गया तो देखा कि एक इंसान टोपियों की गठरी काँधे पर लादे चला जा रहा हैं। बन्दर को बाप-दादाओ वाली कहानी याद थी लेकिन क्या करता?यहाँ तो परिस्थिति उल्टी थी। वो एक बन्दर था और सामने दुनिया का सबसे बुद्धिमान और चालाक जीव था। तभी बन्दर ने देखा कि इंसान के कुर्ते की अगली जेब में एक पेन रखा हुआ हैं। बन्दर समझ गया कि यह एक 'बुद्धिजीवी' हैं। उसके दिमाग में एक आईडिया चमका। "नमस्ते लेखक जी! क्या हालचाल हैं?" बन्दर ने कहा। "बस बढ़िया आप सुनाइए?" बुद्धिजीवी बोला। "आपको नहीं लगता की देश में असहिष्णुता बढ़ गयी।" और फिर बुद्धिजीवी फुट पड़ा। उसने रोते-रोते देश में बढ़ती असहिष्णुता पर एक घंटे का भाषण दे दिया। "हम्म! तो आपको भी देश में बढती असहिष्णुता के विरोध में कुछ लौटा देना चाहिए। " अंत में बन्दर बोला। "मेरे पास क्या हैं लौटाने लायक?" "ये जो सम्मान में आपको इतनी सारी टोपियाँ मिली हैं क्यों न आप मुझे लौटा?" ये बात बुद्धिजीवी को जम गयी उसने गठरी बन्दर को लौटा दी। बन्दर ने गठरी सिर पर रखी और चलता बना।